मैं देखता हूं......
मैं दूर से हम शिखर पर
हिम के विलय को देखता हूं,
बसंत की बहार में
घुलते जहर को देखता हूं,
समय की रफ्तार में
बदलते संस्कार को भी देखता हूं।
देखता हूं रोज़
अपने से बनते बिगड़ते संबंध को,
कल संजोने की चाह में
व्यस्त वर्तमान भी देखता हूं।
भूख से जूझते
गरीब की साधना को देखता हूं,
साथ ही विदेशी कार में
चलते स्वदेशी देखता हूं,
विश्व शांति के लिए
होते धमाके देखता हूं ।
झूठ के बाज़ार में
नीलाम होते सत्य को देखता हूं
राजमोह में हर दिन
बदलती सरकारें देखता हूं
आतंक - घृणा के माहौल में
गुमते स्वयं को देखता हूं
अश्रुपूरित चक्षुओं से
भविष्य का भयावह स्वप्न देखता हूं।
........ कमलेश
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