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Kamlesh Joshi

यूं तो कई बार लोगों का परिचय महफ़िल से करवाया है, परन्तु जब खुद के बारे में शेखी बघारनी हो तो आप थोड़ा असहज महसूस करते हैं...... वही आज मैं खुद को व्यक्त करने में पा रहा हूं। वैसे करना तो बहुत कुछ चाहता था कि, ये करूं या वो करूं, पर जीवन को दौड़ में कुछ चीजें फिसल गई तो कुछ खुद ब खुद मेरा हिस्सा बन गईं।

साहित्य के प्रति मेरी रुचि शायद मेरे पिता जी की देन है, जो स्वयं एक कर्मठ शिक्षक रहे। उनके किसी भी प्रसंग की व्याख्या करने का अंदाज अनुपम था। हिंदी हो या अंग्रेजी, किसी भी अंश का चित्रण उनके व्याख्यान में सजीव हो उठता था। यही कारण रहा कि मेरा मन भी मुझे कभी कभार लिखने को जागृत करता रहा।

कभी कच्चा तो कभी सामान्य लिखने को प्रयास किया। शुरुआती दौर में लिखी कविताएं, इधर उधर पड़ी रहीं या फिर कभी कागज की नाव या जहाज में तब्दील हो अतीत के गर्भ में समा गईं। न मैंने कभी उनको संभाला और न ही किसी गंभीरता से लिया।

फिर अचानक एकाध बार मेरी लिखी कुछ पंक्तियां मेरे साथियों को पसंद आ गई और मुझे ये सलाह दी जाने लगी कि इनका संग्रह किया जाय।

सोचा कि चलो ये भी कर के देखते हैं... पर कैसे?..... ये एक चुनौती थी। तभी साथ मिला मेरे तकनीकी विशेषज्ञ मित्र पंकज पांडे जी का। फिर क्या था, उनके सहयोग से बन गई एक वेबसाइट......

www.kamleshjoshi.co.in

अब निरंतर प्रयास जारी है कि कुछ जीवन से जुड़ा हुआ लिखूं और आप सभी से साझा करूं। स्वरचित के साथ साथ कुछ और पठनीय सामग्री भी साझा करने की कोशिश करूंगा जो शायद आप सुधि पाठकों को रुचिकर लगे।

इसी उम्मीद के साथ, आपके सुझावों एवं उत्साहवर्धन की अपेक्षा में......

-कमलेश जोशी

Kamlesh Joshi - The Writer

Kamlesh Joshi, the Principal at Army Public School, Ranikhet, is a passionate Writer and pours all his life experiences into the lines pen down.

रिश्ते.....

रीते हाथ ही तुमआये थे
'औ' रीते ही तुम जाओगे,
है सही नहीं लगता ये सब
जब खुद से खुद बतियाओगे।

उन राज़ का क्या जो मन भीतर
हैं दफन कहीं गहरायी में,
जो नहीं उजागर हुए कभी
रिश्तों की अनकही सच्चाई में।

जीवन की राह सजाने में
उलझन से खुद को बचाने में,
कुछ समझौते करने होते
पथ कहीं बदलने हैं होते ।

हर बार नहीं सिद्धांतो पर
रिश्तों की बलि दी जाती है,
किसी रोज़ अकारण ही अपनी
सीमा भी बदली जाती है।

सीधे चलने पर जीवन में
अवरोधों को बढ़ते देखा,
कुछ वक़्त बेवक्त समझौतों से
नैया को संभलते है देखा ।

हैं वृक्ष अड़े जो भी वन में
वो पहले भू पर गिरते है,
वायु भी न उन्हें डिगा पाती
जो हो विनम्र झुक चलते हैं।

इसलिए अकड़ने से बेहतर
झुक जाने में कोई शर्म नहीं
जब दांव पर हो रिश्ते गहरे
उनके उपर फिर अकड़ नहीं।

गीता के उपदेशों भी
केशव ने यही बताया है,
सन्मार्ग वही जिस पर प्रतिपल
रिश्तों की गहरी छाया है।

..... कमलेश

...



मेरी बेटी.....

वो कंचन, निर्मल काया
वो शीतल मन, मधुमय छाया
वो चंचल, चपला सुमधुर बाला
घर आता देख मुझे अपने

मेरे स्वागत को उत्सुक हो
बाहें अपनी फैला करके
उसमें समेट खुश होती है,

फिर पहला प्रश्न यही होता
क्यों देरी से घर आये हो
बब्बा मेरे क्या लाये हो ?

और नन्हे उसके हाथों से फिर
जेबें मेरी छन जाती हैं,
कोमल स्पर्श नया देकर
उष्णता नयी दे जाती हैं।

मेरी बेटी
निश्चल रचना,
हर लेती है मेरी वेदना,

थक माँद लौट जब आता हूँ,
ढूँढता उसे घर पाता हूँ,
जिससे मेरा उपवन वय है
वो मेरा जीवन मधुमय है।

मेरे मस्तक की चिंतन रेखा
धूमिल क्षण में कर जाती है,
मैं भी सब भूला सा अपनी
दुनियाँ में गुम हो जाता हूँ,

माथे पर पा स्पर्श उसका
कुछ क्षण बेसुध हो जाता हूँ।
फिर उसको गले लगा करके
हिय समीप चिपका करके
ठंडक सी मैं पा जाता हूँ ।

ममता का रूप नया देकर
वह भाव भ्रमित कर जाती है
मेरी प्यारी "गुल्लू" मुझको
इक नवजीवन दे जाती है ।

..... कमलेश

...



मन.....

मन कर तू एक सवेरा
जिसमें हो नया बसेरा,
दिल में उल्लास भरा हो
उत्सव सा प्रेम भरा हो,

मैं जहां प्रफुल्लित होकर
और अपनों में घुलमिल कर,
जी लूं पल कुछ हंस करके
जीवन की उलझन तज के,

उपजा विषाद मिटा दे
मन उपवन नया बना दे,
मेरे मन की पीड़ा का
हल नहीं मुझे दिखता है,

जीना चाहूं जीवन जो
समीकरण नहीं बनता है,
जिनसे नाता मेरा है
खुश नहीं कभी आते हैं,

कमियां मेरे भीतर की
वो ढूंड पकड़ लाते हैं,
मैं फिर अपने को उलझा
और परेशान पाता हूं,

सपनों के बुने महल को
कोसों दूर खड़ा पाता हूं,
शायद ये ही जीवन है
मन की मेरे उलझन है,

विश्वास मुझे है लेकिन
आएगा नया सवेरा,
मेरी कमियों को लेकर
डूबेगा कभी अंधेरा।

..... कमलेश

...



बदलाव.....

मेरे अंदर बदलाव है,
या स्थितियों में ठहराव हैै।
तेरे मन की उलझन ने या
कुछ फैलाया अलगाव ये है।

थोड़ा तम को तू दूर तो कर,
थोड़ा मैं उजियारा लाऊं।

चल हाथ पकड़ कुछ दूर चलूं,
एक बार मैं फिर से मिल पाऊं।

माना, मन तेरा विचलित है,
माना कि, बड़ा तूफ़ान खड़ा
माना कि डगर है कठिन बड़ी
माना, नैया मझधार चड़ी।

तेरे में कितनी ताकत है,
यह देख रही पतवार तेरी।

कब हार को तूने माना है ?
यूं राह में क्यूं झुक जाना है।

मन में संशय पैदा मत कर
जब जीत हमारी निश्चित है,
मुझको किंचित संदेह नहीं
तू जीतेगा ये तो तय है।

..... कमलेश

...



अशांति.....

हर तरफ, हर जगह
संवेदनाएं समाप्त,
मानवता शून्य,
सिर्फ स्वार्थ, और स्वार्थ।

हरेक ने चश्मा पहना है,
कोई लाल , कोई हरा
सब अपने चश्में से
अपना ही राग अलापते।

घिन सी आती है,
बड़ा भयावह है ये सब।

घर बनाने में वक़्त लगता है
पसीना बहता है,
बहुत संघर्ष होता है,
इक उम्र खप जाती है,

और इन्हें तकलीफ ही नहीं होती,
ये सब उजाड़ने में,
किसी को मारने में,

मेहनत से बनाए
घर को जलाने में,
किसी की रोज़ी को
तबाह करने में,

उस दुकान, कार, घर,
का तो कोई धर्म भी नहीं,
उसको भी जला दिया,
सिर्फ इसलिए कि
वो फलां व्यक्ति की है।

सच कहूं,
जिसने भी जलाया
घर, कार, दुकान
और मारा किसी को भी
वो इन्हें जानते तक ना थे।

इसलिए ये दरिंदे,
कुछ भी हो सकते हैं,
पर इंसान नहीं।

इनके आकाओं को
ये याद रखना होगा,
चिरस्थाई सिर्फ एक चीज़ है
वो है, परिवर्तन।

समय बदलेगा,
इतिहास सब को
कठघरे में खड़ा करेगा

उनको भी जो आज
लाल ऐनक में है,
और हरे में भी।

..... कमलेश

...



समय.....

समय को देख इतनी तेज चलते
फिसलते अपने हाथों से सरकते
देखते दोस्तों को खुद से बिछड़ते
बहुत व्याकुल मेरा मन होता जाता
अजीब सा डर मेरे भीतर समाता।

इधर से उधर जो सब दौड़ते हैं
ले ख्वाहिशों का बोझ सर भागते हैं
नहीं उनको खबर क्या हो रहा है
समय अपना सफ़र भी कर रहा है
अनोखी चाल से गति कर रहा है।

असंख्य उत्श्रंखलों को रौंद डाला
समय का है अलग ही बोलबाला
है उसका न्याय अपने ही तरह का
बिना आवाज़ के जो घिस रगड़ता
शक्ति भी सोचने की छीन लेता।

हृदय में भान ये हर वक्त रखिए
जरूरतमंद का भी ख्याल रखिए
ना केवल दौड़िये खुद के लिए ही
वरन ले साथ गिरतों को भी चलिए
कमाई धन नहीं जीवन में है बस
थोड़ा सत्कर्म ले ये राह गुनिये।

..... कमलेश

...



होई सोई जो.....

सब होने का कुछ कारण है
मिल औ बिछुड़ना सब तय है
हम स्वयं कयास लगाते है
समझाते हैं अकुलाते हैं

हृदय विसाद बढ़ाते हैं
मन भरमाता-झुंझलाता है
केवल आवेग बड़ाता है

रफ्तार वही काबिल होती
जो समझ सहज हो चलती है
नाहक चिंता जीवन डोरी,
को, असमय जर्जर करती है

अति हर्ष में संयम रख पाये, और
दुख क्षण में धैर्य जुटा पाये
उसका जीवन खिल जाता है
सुंदर उपवन बन आता है.

..... कमलेश

...



माँ तो माँ है.....

माँ तो माँ है,
निश्छल प्रेम सदा करती
कांटे मेरी राहो के
हर पल वो चुनती रहती।

नहीं गिनाती अपने दुख जो
मेरी पीड़ा की सुधि लेती,
कभी उतारती नज़र वो मेरी
कभी आँचल सर रख देती।

नहीं चाहती कभी और कुछ
सिवा मेरे खुश होने के,
माँ है वो कब रो लेती है
पता नहीं दुख होने पे।

उसका आँचल उसकी ममता
बहुत बड़ा है कवच मेरा,
मेरी राह की हर अढचन का
एकमात्र संबल मेरा।

मुझे कभी हो
ज़रा दर्द तो
भान उसे हो जाता है,
लाख छिपाऊँ दर्द मेरा
पर ज्ञान उसे हो जाता है।

मैं भूलूँ पर वो ना बिसारे
प्रतिपल सुधि वो लेती है,
कहीं रहूँ मैं इस भूतल पर
सदा साथ वो रहती है।

नहीं योग्य उसके स्नेह के
कभी स्वयं को पाता हूँ,
उसके आशीषों के आगे
सदा द्रवित हो जाता हूँ।

जिस तिस से लड़ लेती है वो
मैं सही गलत कुछ भी होऊँ,
मैं उसका हूँ सदा राम
वह कौशल्या बन जीती है।

मैं अनजाने बात बात पर
उसका हृदय दुःखाता हूँ,
वो माँ है, ना कभी रूठती
बस पल को मुँह सी लेती।

जाना तो सबको जाना है
पर जब माँ तू जाएगी,
नहीं जानता कैसे सह पाऊँगा
तेरी चिर विदाई मैं।

और न जाने कौन लड़ेगा
प्रतिपल मेरी लड़ाई में।

तेरे बिन हर आंगन सूना
हर उत्सव हर दीवाली,
घर सूना, मन सूना होगा
माँ तुझ बिन ये फुलवारी।

..... कमलेश

...



प्रेयसी.....

तुम हो हृदय, तुम रागिनी हो,
मेरे हृदय की स्वामिनी हो,
हर सांस में तुम महकती हो,
हर ख्वाब में तुम संवरती हो।

हर पल तुम्हीं को खोजता हूं,
सच है प्रिये मैं पूजता हूं,
तुम हो तो रौशन ज़िंदगी है,
चहुं ओर फैली इक खुशी है।

तुम साथ हो फिर उद्विग्नता क्यों,
संशय कहां फिर वेदना क्यों,
हर राह में तुम मेरी संगी
हो प्रेयसी अनुपम तरिंगी।

..... कमलेश

...



ख्याल.....

कभी मुस्कुराना, कभी रूठ जाना
कभी आके ख़्वाबों में यूं गुदगुदाना।

ये रोशन दिनों के उजाले में छिपना,
औ अंधेरी रातों में मिलना मिलाना।

कभी रूह को मेरी एहसा कराना,
यहीं हूं तुम्हारे करीब ये बताना।

कभी जानकर भी अनजान बनना,
कभी ख्वाहिशों को मन में दबाना।

लबों पर अधूरी सी बातों को लाना,
मेरे मुंह से फिर उनको सुनना सुनना।

मिले वक्त जब भी तो मिलने बुलाना,
बाहों में भरके मुझे ये समझना।

कि, डरता है ये मन कई उलझनें हैं,
कठिन गर नहीं तो सरल भी नहीं हैं।

मगर मन ये बसता है तेरे ही मन में,
सुकूं भी ये मिलता है तेरे ही संग में।

..... कमलेश

...



सत्य है.....

मैं हूं...
ये सत्य है,
समय के बहाव में
बह रहा हूं.... सत्य है,
निरंतर जीवन के
उतार औ चड़ाव में,
मिलते - बिछड़ते स्नेह की
सुगंधित मिठास को
अनुभव कर रहा हूं.... सत्य है।

जीवन के चरम पर
पहुचुंगा कभी,
आ सकूंगा काम
निस्वार्थ - शायद कभी,
जी सकूंगा - सार्थक
प्रयास की ये आस
लिए पास .... जी रहा हूं,
ये भी सत्य है।

......... कमलेश

...



अभिलाषा.....

चलो खुश हों निभा लें ज़िंदगी से
जिएं दिल की सभी शर्तों को लेकर,
खड़े हों भू पर और आसमान छू लें
नयी एक बुलंदी को स्पर्श कर लें!

ये जीवन सूर्य सा उजला बना लें
हृदय में चांद सी झिलमिल सजा लें,
किसी के साथ कुछ पल बांट लें, और
किसी का हाथ कुछ पल थाम भी लें।

ये जीवन एक चुनौती है तो क्या फिर
संघर्षों से भरी है एक डगर फिर,
चलेंगे उस पार इसको जीत कर हम
रचेंगे नवल सुंदर राह को हम।

रचा जो स्वप्न है, अभी साकार करना
जो हमने देखा है मिलकर समझना,
सजेंगी सब दिशाएं हमारे कर्मफल से
मिलेगी जीत हमको हर तरफ से।

.....कमलेश

...



जीवन लहर.....

जीवन की सुंदर नैया को
जब दिया झोंक भवसागर में,
फिर क्यों घबराना लहरों से
छोटी मोटी हर उलझन से।

उस पार लगाना ही होगा
चाहे मुश्किल जितनी भी हो,
सागर की उफनती लहरों में
हो संभल दूर जाना होगा।

हर लहर का अपना मकसद है
कुछ ऊचाई पर लाएंगी,
कुछ अनुभव नए सिखाएंगी
जीवन की राह बताएंगी ।

फिर इनसे क्यों डर जाना है
विश्वास नया जगाना है,
लहरों को चीर बड़ जाना है
मंज़िल को गले लगाना है।

इस उथलपुथल के जीवन में
तू अपना स्वयं खिवैया है
नौका तेरी, सागर तेरा
पतवार तेरी, है राह तेरी
फिर क्या इसको उसको कहना
कर दृढ़ निश्चय आगे बढ़ना ।

........ कमलेश

...



मैं देखता हूं......

मैं दूर से हम शिखर पर
हिम के विलय को देखता हूं,
बसंत की बहार में
घुलते जहर को देखता हूं,
समय की रफ्तार में
बदलते संस्कार को भी देखता हूं।

देखता हूं रोज़
अपने से बनते बिगड़ते संबंध को,
कल संजोने की चाह में
व्यस्त वर्तमान भी देखता हूं।
भूख से जूझते
गरीब की साधना को देखता हूं,
साथ ही विदेशी कार में
चलते स्वदेशी देखता हूं,
विश्व शांति के लिए
होते धमाके देखता हूं ।

झूठ के बाज़ार में
नीलाम होते सत्य को देखता हूं
राजमोह में हर दिन
बदलती सरकारें देखता हूं
आतंक - घृणा के माहौल में
गुमते स्वयं को देखता हूं
अश्रुपूरित चक्षुओं से
भविष्य का भयावह स्वप्न देखता हूं।

........ कमलेश

...



अनुभूति......

सूर्योदय के साथ
पर्वत शिखरों पर
बिखरती लालिमा,
और श्रृंखलाओं का
स्वर्णिम हो दमकना,

जमीन पर फैली
ओस से भीगी
दूब पर चलना,
मन में व्याप्त
कोलाहल का
शांत हो जाना,

फिर रश्मिरथ पर चढ़
आसमान की
ऊंचाईयों में विचरना,
हृदय को अनंत
सुख के शिखर
पर ले चलता है।

........ कमलेश

...



बहुत दुःखता है......

ये एक चुभन
बच्चे में विकास की लगन
मेरा बहुत सोचना
उनको बोझ लगना,

समय की वेदी पर
स्वयं को होम करना
किसी अनिश्चित राह पर
बस यूं ही निकल बड़ना
पता नहीं,

कितना कठिन
कितना दुश्कर
कितना अकल्पनीय
पर भारी तो है
सहज रहना,

बहुत दुःखता है;
आशाओं का धुलना
ख्वाबों का बिखरना
आंखों के सामने
रोज कुछ टूटना,

समय की दौड़ में
पैरों का अड़ जाना
सहारे के होते हुए भी
अपने ही सामने
खुद का ढह जाना,

और फिर मंजिल को तकते
भीगे नयनों से
अपने से दूर होते देखना
बहुत दुःखता है।

.......कमलेश

...



मेरे प्रभु.....

जीवन के अवसान प्रहर पर
न जाने क्या पीड़ा होगी,
कितना मन ये विचलित होगा
कितनी अंतः वेदना होगी!

यह शरीर क्षय तो होगा ही
रुग्णता इसे जब घेरेगी,
सशक्त इंद्रियां शिथिल पड़ेंगी
ये स्वांस भी लय को तोड़ेगी!

मैं उठने को जब बार बार
हो व्यथित तुम्हें ही खोजूंगा,
हे प्रिये कहीं तुम घृणा दृष्टि से
देख मुझे क्या टोकोगी ?

मेरा स्वाभिमान मेरे तब
अंतर्मन को झकझोरेगा,
सुन कर अपनी उलाहना को
प्रतिपल मुझको दुत्करेगा!

हूं आज चाहता मैं जितना
कल उससे बेहतर चाहूंगा,
मैं हाथ तुम्हारा थाम सदा
जीवन में बढ़ता जाऊंगा !

हे ईश्वर मेरा यही निवेदन
जब वृद्धावस्था को पाऊं,
बुद्धि रहे स्थिर शांत और
जिव्हा मधुर स्नेहिल पाऊं!

हे प्रभु मेरे दया दृष्टि हो
अंत समय मुझ पर तेरी,
हाथ रहे मेरे सर पर प्रभु
टूटे मेरी जब जीवनडोरी!

........... कमलेश

...



अभिलाषा.....

अभिलाषा

चलो खुश हों निभा लें ज़िंदगी से
जिएं दिल की सभी शर्तों को लेकर,
खड़े हों भू पर और आकाश छू लें
बुलंदी एक नयी फिर आज छू लें!
ये जीवन सूर्य सा उजला बना लें

हृदय में चांद सी झिलमिल सजा लें,
किसी के साथ कुछ पल बांट लें, और
किसी का हाथ कुछ पल थाम भी लें।
ये जीवन एक चुनौती है तो क्या फिर
संघर्षों से भरी है एक डगर फिर,
चलेंगे पार इसको जीत कर हम
रचेंगे नवल सुंदर राह को हम।
रचा जो स्वप्न है, अभी साकार करना
जो हमने देखा है, मिलकर समझना,
सजेंगी सब दिशाएं हमारे कर्मफल से
मिलेगी जीत हमको हर तरफ से।

.....कमलेश

...



अब तुम....

अब तुम.....

अब तुम बच्चे रहे नहीं
वय हुए, समय के साथ बड़े,
मुझे, ये खुद को समझाना होगा
अब तुमसे, कहना कम,
बस सुनना होगा।
तुमको अब,
मैं रोक नहीं सकता,
हाँ तुम, मुझे टोक सकते हो।
बड़े जो हो गए हो,
अब शब्द भी आ गए हैं,
और आवाज भी।
परंतु मैं, वही हूं... बस,
समय बदल गया है,
भाव और काल बदल गया है,
अब पहले सी बात नहीं,
कि, बिना सोचे कुछ भी कह दो।
अब तो मां भी,
कहती नहीं, बोलती है।
...........अच्छा है !

पर मेरे बच्चो,
ये आसमान बहुत बड़ा है
परिंदों की उड़ान को।
ध्यान से....
यहां बहुत व्याध भी हैं,
बस, मेरे अनुभव से सीख लेना,
मुझे पीड़ा नहीं,
मैं तो राह बना चुका,
अब उस पर चलता हूं बस।
टेढ़ी मेढ़ी जैसी भी है,
मेरी खुद की जिम्मेदारी है,
पर तुमने समय पर ना जाना,
तो निश्चित ही पछताओगे,
है सांस ये जब तक जीवन में,
साथ मेरा तुम पाओगे।
उसके आगे सब रहें सुखी,
है यही कामना अब मेरी,
सब काम तुम्हारे पूरे हों,
जीतो हर पल जीवन बेरी,
खुश रहो, कि यही पूंजी है,
साधन रखो कि दुःख ना हो,
जीवन सुखमय निरोगी हो।
...... शेष एवमस्तु !

....... कमलेश

...